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Sunday 30 October 2011

श्री लखी नारायण डे का जन्म पश्चिम बंगाल के बर्दवान जिले में सन १० -१० -१९१० ई॰में हुआ था । १० बी(मेट्रिक )पास करने के बाद बे कारीगरी के क्षेत्र में अपना भविष्य बनाने की सोची । अतः स्वर्ण आभूषण की कारीगरी सीखने लगे । उन्हें काम सीखने की काफी उत्साह थी सो चित्रकारी की कला सीखने में काफी समय दिया । कालांतर में वे एक अच्छे चित्रकार ,फोटोग्राफर और तक्निशीयन बन गए । उनके पास एक बड़ा कैमरा था जिसे काला कपडे से ढककर फोटो खिंचा जाता था और कांच की फिल्म का इस्तेमाल होता था । एक पाँकेट कैमरा भी था जिसमे १२७ नं की फिल्म का इस्तेमाल होता था । वही दोनों कैमरा लेकर बे भारत भ्रमण पर निकल पड़े और फोटोग्राफी की । कुछ समय स्वतंत्रता आन्दोलन में भी भाग लिया ,जिसके कारण उन्हें घर छोरकर इधर-उधर भटकना पड़ा । पर उन्होने कभी स्वतंत्रता -सेनानी पेंन्शनलेने की इच्छा ब्यक्त नहीं की । इसी भाग -दौड़ में भागलपुर (बिहार ) में आ कर रहने लगे । सन १९३४ ई॰ में उन्हें मुंगेर आना पड़ा ,और यही रहकर अपना कारोबार प्रारंभ किया । उसी समय मुंगेर में भयानक भूकंप आया था । उन्हों ने बहुत कष्ट सहकर अपने बच्चों का पालन -पोषण किया और अपना व्यापार सम्भाला। चूँकि उन्हें स्वर्ण -शिल्प के सभी बिधाओ में (जैसे :मीनाकारी ,फोटोमीना,नग़-सेट्टिंग,पच्चीकारी ,नकशाउकेरना ,इन्ग्रविंग इत्यादि )महारथ हासिल थी अतः ग्राहकों का मनपसंद जेबर बनाकर उनका मन मोह लेते थे और यश पाते थे । लोग दूर -दूर से उनके पास जेबर बनबाने आते थे और प्रसन्न हो कर जाते थे । उनका कर्यचेत्र दूर दूर तक फैला था । ग्राहक उनकी ईमानदारी का लोहा मानते थे ,उन्होंने कभी किसी को ठगा नहीं । चूँकि वे एक अच्छे कारीगर थे अतः अपने जरुरत का औजार खुद बना लिया करते थे । वे इमानदार,धरम परायण ,सच्चे और सरल स्वाभाव के थे । वे रोज गीता का पाठ किया करते थे तत्पश्चात अन्य काम में संलग्न होते थे । वे एक अच्छे पिता थे अतः हमें सद्मार्ग पर चलने की सतत उपदेश देते थे ,। उनके निकट रहकर मैं ने कारीगरी के गुर को सिखा और समझा । अतः मैं भी उनके संसर्ग में रहकर चित्रकार /कार्टूनिस्ट और दुकानदार बन गया । मेरे लगभग ३००० कार्टून सभी समाचार पत्रों /पत्रिकाओ में प्रकाशित हो चुके हैं ,जिसमे साप्ताहिक हिंदुस्तान ,आज .नंदन ,पराग ,कादम्बिनी इत्यादि प्रमुख हैं । एक पुस्तक भी प्रकाशित हुई है । श्री लखी नारायण डे के पदचिन्न्हो पर चलकर मैं भी स्वर्ण -शिल्पी बन गया । ५ जुलाई सन१९८९ में वे मेरा साथ छोड़ कर महा प्रस्थान कर गए । मैं एक महापिता ,महानमार्गदर्शक ,महागुरु ,महामित्र से बंचित हो गया ।





































































































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